सच्ची मित्रता क्या होती है,इसका सबसे अच्छा उदहारण श्री कृष्ण और सुदामा जी ने प्रस्तुत किया है। भगवान लोगों के बीच उनकी वित्तीय स्थिति के आधार पर अंतर नहीं करते हैं। वो हमेशा भक्ति एवं भाव को प्राथमिकता देतें हैं।
जीवन में कभी भी कुछ भी निःशुल्क की आशा न करें। भगवान आपके अच्छे कर्मों के लिए आपको उचित फल प्रदान करतें हैं।एक नीती यह भी हैं कि ,किसी वस्तु के बदले भक्ति का व्यापार नहीं करना चाहिए।
इस विश्व प्रसिद्ध मित्रता को थोड़ा विस्तृत रूप से समझतें हैं।
सुदामा श्री कृष्ण के बचपन के मित्र थे। ऐसा माना जाता है कि सुदामा ने कृष्ण से मिलने और उनके कार्यों में भाग लेने के लिए धरती पर जन्म लिया था। उन्हें भगवान विष्णु का सच्चा भक्त भी माना जाता है।
सुदामा का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था। दूसरी ओर,श्री कृष्ण एक राजपरिवार से थे। उनकी स्थिति के बीच का अंतर उनकी सच्ची मित्रता के आगे अवरोधक बनने में सफल नहीं हो पाय। सुदामा और कृष्ण दोनों ही अविभाज्य थे। आज भी उनकी एकता दुनिया के सामने सच्ची मित्रता का उदाहरण है। यही कारण है कि मित्रता दिवस के शुभ अवसर पर उन्हें अक्सर याद किया जाता है।
श्रीमद भगवत महापुराण में कृष्ण सुदामा मिलन का एक प्रसंग है ,जो बहुत मार्मिक है। सुदामा का जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम मटुका और माता का नाम रोचना देवी था।श्री कृष्ण राजकीय परिवार से थे और भगवान विष्णु के अवतार थे। लेकिन यह सामाजिक-आर्थिक स्थिति का अंतर उनकी शिक्षा के मध्य नहीं आया। सभी विद्यार्थी गुरु की सब प्रकार से सेवा करते थे। एक बार श्री कृष्ण और सुदामा गुरु सान्दीपनि मुनि के कहने पर लकड़ी लेने के लिए जंगल में गये। बारिश होने लगी और वे एक पेड़ के नीचे रुक गए। सुदामा के पास खाने के लिए थोड़ा चना था। सर्वज्ञ श्रीकृष्ण ने कहा कि वह भूखे हैं। सुदामा ने पहले तो कहा कि उनके पास कुछ नहीं है। हालांकि, श्रीकृष्ण की अवस्था को देखते हुए उन्होंने उनके साथ अपना चना बाटा। तब भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें कहा कि चना मुझे प्रिय नहीं है।
जब श्री कृष्ण द्वारिका के राजा हुए , सुदामा अत्यधिक गरीबी से पीड़ित थे, और परिवार का भरण-पोषण करने के लिए भी पर्याप्त धन नहीं था, उनकी पत्नी वसुंधरा ने उन्हें कृष्ण के साथ उनकी मित्रता का स्मरण करवाया। सुदामा ने राजा श्रीकृष्ण से कृपा नहीं मांगी। उसने सोचा कि यह मैत्री का सिद्धांत नहीं है और अपने अल्प साधनों में ही रहने लगे।सुदामा हमेशा भगवान श्री कृष्ण को अपने ह्रदय और आत्मा में बसाते थे।
जब सुदामा कई सालों के बाद कृष्ण से मिले,आज भी जब हम उन पलों को याद करते हैं, तो उन दोनों की मित्रता और एक-दूसरे के प्रति प्रेम को याद करके हमारी आँखों में आँसू आ जाते हैं।
कृष्ण और सुदामा दोनों बड़े हो गए। सुदामा और उनकी पत्नी ने गरीबी से त्रस्त जीवन व्यतीत किया। लेकिन वह धार्मिक मार्ग के प्रति समर्पित थे, लोगों को धार्मिक मार्ग सिखाते थे और इसलिए उन्हें उनके जीवन का वास्तविक अर्थ बताते थे। इस बीच, भगवान श्री कृष्ण द्वारका के राजा थे।
जब सुदामा और उनका परिवार गरीबी से जूझ रहा था और उनके पास अपने बच्चों को खिलाने के लिए पैसे नहीं थे, गरीबी से तंग आकर एक दिन सुदामा की पत्नी ने उनसे कहा कि वे खुद भूखे रह सकते हैं लेकिन बच्चों को भूखा नहीं देख सकते। ऐसे कहते -कहते उनकी आंखों में आंसू आ गए।
ऐसा देखकर सुदामा बहुत दुखी हुए और पत्नी से इसका उपाय पूछा। इस पर सुदामा की पत्नी ने कहा- आप बताते रहते हैं कि द्वारका के राजा कृष्ण आपके मित्र हैं। जब द्वारका के राजा के आप मित्र हैं तो क्यों एक बार क्यों नहीं उनके पास चले जाते? वह आपके दोस्त हैं तो आपकी हालत देखकर बिना मांगे ही कुछ न कुछ दे देंगे। इस पर सुदामा बड़ी मुश्किल से अपने सखा कृष्ण से मिलने के लिए तैयार हुए। उन्होंने अपनी पत्नी वसुंधरा से कहा कि किसी मित्र के यहां खाली हाथ मिलने नहीं जाते इसलिए कुछ उपहार उन्हें लेकर जाना चाहिए। लेकिन उनके घर में अन्न का एक दाना तक नहीं था। कहते हैं कि सुदामा के बहुत जिद करने पर उनकी पत्नी वसुंधरा पड़ोस से चार मुट्ठी चावल मांगकर लाईं और वही श्री कृष्ण के लिए उपहार के रूप में एक पोटली में बांध दिया।
सुदामा अंततः भगवान श्री कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए यात्रा करने के लिए सहमत हो गए। उन्होंने चावल की पोटली बांधकर वहां से प्रस्थान किया क्योंकि उन्हें याद था कि श्री कृष्ण को चावल बहुत प्रिय थे।
सुदामा जब द्वारका पहुंचे तो वहां का वैभव देखकर हैरान रह गए। पूरी नगरी सोने की थी। लोग बहुत ही सुखी और संपन्न थे। सुदामा किसी तरह से लोगों से पूछते हुए कृष्ण के महल तक पहुंचे और द्वार पर खड़े पहरेदारों से कहा कि वह कृष्ण से मिलना चाहते हैं। लेकिन उनकी हालत देखकर द्वारपालों ने पूछा कि क्या काम है? सुदामा ने जवाब दिया, मुझे कृष्ण से मिलना है। वह मेरा मित्र है। अंदर जाकर कहिए कि सुदामा आपसे मिलने आया है। दरबान को सुदामा के वस्त्र देखकर हंसी आई।
सुदामा ने द्वारका नरेश के महल में पहुंचकर द्वारपालों से भगवानश्री कृष्ण से मिलने की अनुमति मांगी। उन्होंने यह भी कहा कि श्री कृष्ण उनके बचपन के सखा हैं।द्वारपाल उनको देखकर हॅसने लगे और एक दूसरे का मुख देखने लगे। यहाँ तक कि द्वारपालों ने उनके साथ पागलों जैसा व्यवहार किया, क्योंकि उनकी हालत इतनी बुरी थी कि उसके कपड़े फटे हुए थे। लेकिन सुदामा जी ने द्वारपालों से अनुरोध किया कि वे कृष्ण को उसके आगमन के बारे में सूचित करें। कई बार अनुरोध करने के बाद, द्वारपालों ने कृष्ण से सुदामा के बारे में पूछने का फैसला किया।
द्वारपालों ने महल में जाकर भगवान कृष्ण को बताया कोई गरीब ब्राह्मण उनसे मिलने आया है। वह अपना नाम सुदामा बता रहा है। सुदामा का नाम सुनते ही भगवान कृष्ण नंगे पांव सुदामा को लेने के लिए दौड़ पड़े। वहां मौजूद लोग हैरान रह गए कि एक राजा और एक गरीब साधू में कैसी दोस्ती हो सकती है।
भगवान कृष्ण सुदामा को अपने महल में ले गए और पाठशाला के दिनों की यादें ताजा कीं। कृष्ण ने सुदामा से पूछा कि भाभी ने उनके लिए क्या भेजा है है? इस पर सुदामा संकोच में पड़ गए और चावल की पोटली छुपाने लगे। ऐसा देखकर कृष्ण ने उनसे चावल की पोटली छीन ली। भगवान कृष्ण सूखे चावल ही खाने लगे। सुदामा की गरीबी देखकर उनके आखों में आंसू आ गए।
सुदामा कुछ दिन द्वारिकापुरी में रहे लेकिन संकोचवश कुछ मांग नहीं सके। विदा करते वक्त कृष्ण उन्हें कुछ दूर तक छोड़ने आए और उनसे गले लगे। सुदामा जब अपने घर लौटने लगे तो सोचने लगे कि पत्नी पूछेगी कि क्या लाए हो तो वह क्या जवाब देंगे?
सुदामा घर पहुंचे तो वहां उन्हें अपनी झोपड़ी नजर ही नहीं आई। वह अपनी झोपड़ी ढूंढ़ रहे थे तभी एक सुंदर घर से उनकी पत्नी बाहर आईं। उन्होंने सुंदर कपड़े पहने थे। सुशीला ने सुदामा से कहा, देखा कृष्ण का प्रताप, हमारी गरीबी दूर कर कृष्ण ने हमारे सारे दुःख हर लिए। सुदामा को कृष्ण का प्रेम याद आया। उनकी आंखों में खूशी के आंसू आ गए।
कृष्ण : मित्र सुदामा, अहोभाग्य मेरे! इतने दिनों बाद भेंट हुई।
सुदामा : हाँ मित्र तुमसे मिलने को बड़ा मन कर रहा था। इसलिये चला आया।
कृष्ण : बहुत अच्छा किया मित्र।
सुदामा : मैंने सुना है कि तुम अब द्वारकाधीश बन गए हो। मित्र ये सब माया है। मैं तो तुम्हारा वही कृष्ण ही हूँ। कृपया मुझे द्वारकाधीश मत कहो ।
सुदामा : मित्र सुनाओ तुम्हारा राजकाज कैसा चल रहा है?
कृष्ण : सब ठीक चल रहा है। तुम पहले हाथ-पैर धो लो। मैं तुम्हारे हाथ पैर धोता हूँ। फिर तुम भोजन कर लो और विश्राम करो। फिर बाद में बातें करेंगे।
सुदामा : मित्र तुमसे बहुत बातें करनी है। तुम्हारी भाभी ने उपहार स्वरुप ये तंदुल भेजा है ,इसे स्वीकार करो।
कृष्ण : वाह, भाभी को अपने देवर के प्रति इतना प्रेम। चावल पाकर मैं धन्य हो गया। बहुत ही स्वादिष्ट चावल हैं। उनको मेरा तरफ से धन्यवाद कहना। अब पहले तुम भोजन कर लो, और विश्राम करो, फिर बाद में बातें करेंगे।
सुदामा : ठीक है मित्र।
श्रीकृष्ण के वैसे तो कई मित्र थे, लेकिन सुदामा और कृष्ण के मित्रता की मिसाल आज भी दी जाती है. इसका कारण यह भी है कि धन-दौलत, रंग-रूप और भेद-भाव से परे कृष्ण-सुदामा की घनिष्ठ मित्रता का गुणगान किया जाता है. बाल्यावस्था में कृष्ण और सुदामा एक साथ एक ही गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करते थे. लेकिन बाद में श्रीकृष्ण द्वारकाधीश बने और सुदामा को अत्यंत निर्धनता में जीवन व्यतीत करना पड़ रहा था.
लेकिन श्रीकृष्ण ने सुदामा को तीन मुट्ठी चावल के बदले तीन लोक का स्वामी बना दिया. सुदामा की संपत्ति देख यमराज अपना बहीखाता लेकर द्वारका पहुंचे और श्रीकृष्ण को नियम-कानून का पाठ पढ़ाने लगे।
यमराज द्वारका पहुंचे और श्रीकृष्ण से कहा- क्षमा करें भगवन, लेकिन सत्य तो यह है कि यमपुरी में शायद अब मेरी कोई आवश्यकता नही रही। इसलिए में आपको पृथ्वीलोक के प्राणियों के कर्मों का बहीखाता सौंपने आया हूं। यह कहते हुए यमराज ने भगवान के समक्ष सारा बहीखाता रख दिया।
श्रीकृष्ण बोले- यमराज जी आप इतने चिंतित क्यों लग रहे हैं, आखिर बात क्या बात है?
यमराज ने कहा- भगवान आपके क्षमा कर देने से अनेक पापी यमपुरी नहीं आते बल्कि सीधे आपके धाम चले जाते हैं, ऐसे में आपने सुदामा जी को तीनों लोक देकर तीनों लोक का स्वामी बना दिया. अब ऐसे में हम कहां जाएंगे। ?
यमराज भगवान को अपना बहीखाता दिखाते हुए कहते हैं कि सुदामा जी के भाग्य में ‘श्रीक्षय’ है। लेकिन बहीखाता देख यमराज भी चकित रह जाते हैं। सुदामा के भाग्य वाले स्थान पर ‘श्रीक्षय’ की जगह ‘यक्षश्री’ लिखा होता है। दरअसल खुद भगवान कृष्ण अपनी लीलाओं से अक्षर को बदलकर श्रीक्षय से यक्षश्री कर देते हैं। यक्षश्री यानी कुबेर की संपत्ति!
इसके बाद श्रीकृष्ण यमराज से कहते हैं- यमराज जी! शायद आप नहीं जानते , कि सुदामा ने मुझे अपना सर्वस्व अपर्ण कर दिया था। मैंने सुदामा को केवल उसी का प्रतिफल उसे दिया है।
यमराज आश्चर्य होकर कहते हैं- सुदामा जी ने ऐसी कौन सी संपत्ति आपको दे दी। उनके पास तो कुछ भी नही.
भगवान बोले- सुदामा ने अपनी कुल पूंजी के रूप में मुझे प्रेम स्वरूप चावल अर्पण किये थे, जिसे मैंने और देवी लक्ष्मी ने बड़े प्रेम से खाए हैं। जो मुझे प्रेम पूर्वक कुछ भी खिलाता है उसे सम्पूर्ण विश्व को भोजन कराने जितने पुण्यफल की प्राप्ति होती है। ठीक इसी तरह का प्रतिफल मैंने सुदामा को भी दिया है।
सुदामा कुछ दिन द्वारिकापुरी में रहे लेकिन संकोचवश कुछ मांग नहीं सके। विदा करते वक्त कृष्ण उन्हें कुछ दूर तक छोड़ने आए और उनसे गले लगे। सुदामा जब अपने घर लौटने लगे तो सोचने लगे कि पत्नी पूछेगी कि क्या लाए हो तो वह क्या जवाब देंगे?
सुदामा घर पहुंचे तो वहां उन्हें अपनी झोपड़ी नजर ही नहीं आई। वह अपनी झोपड़ी ढूंढ़ रहे थे तभी एक सुंदर घर से उनकी पत्नी बाहर आईं। उन्होंने सुंदर कपड़े पहने थे। वसुंधरा ने सुदामा से कहा, देखा श्री कृष्ण का प्रताप, हमारी गरीबी दूर कर कृष्ण ने हमारे सारे दुःख हर लिए। सुदामा को कृष्ण का प्रेम याद आया। उनकी आंखों में खूशी के आंसू आ गए।
साथियों , कृष्ण और सुदामा का प्रेम यानी सच्ची मित्रता यही थी। दोस्ती के इसी नेक इरादे की लोग आज भी मिसाल देते हैं।
कृष्ण और सुदामा की कहानी हमें इस दुनिया में दोस्ती का असली मतलब और महत्व सिखाती है। हमें हमेशा अपने दोस्तों की मदद करनी चाहिए, चाहे उनकी आर्थिक स्थिति कैसी भी हो। इसके बजाय, कृष्ण ने सुदामा को रोका और सार्वजनिक रूप से गले लगाया। यह दोस्ती की अमर मिसाल है। इसलिए आज भी जब भी हम दोस्ती की बात करते हैं, तो उन्हें याद किया जाता है।
सबका कल्याण हो।
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