Tuesday, June 24, 2025
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कौन थे कबीर? जानिये उनके बारे में

कबीरदास या कबीर ,15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे।ऐसा माना जाता है, कि उनका जन्म 1398 में काशी में हुआ था।

संत कबीर की रचनाओं ने उत्तर और मध्य भारत के भक्ति आंदोलन को बहुत गहरे स्तर तक प्रभावित किया। उनकी रचनाएँ सिक्खों के गुरुग्रंथ,आदि ग्रंथ में सम्मिलित की गयीं हैं।

कबीर, पत्थर पूजें हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार। तातें तो चक्की भली, पीस खाये संसार।।
संत कबीर जी हिंदुओं को समझाते हुए कहते हैं कि किसी भी देवी-देवता की आप पत्थर की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करते हैं जो कि शास्त्र विरुद्ध साधना है, वह जो कि हमें कुछ भी नही दे सकती। इनकी पूजा से अच्छा तो चक्की की पूजा कर लो जिससे हमें खाने के लिए आटा तो मिलता है।

संत कबीर अंधविश्वास, व्यक्ति पूजा , पाखंड और ढोंग के घोर विरोधी थे। उन्होने भारतीय समाज में जाति और धर्मों के बंधनों को गिराने का काम किया।
वो भोजपुरी साहित्य के भक्तिकाल के निर्गुण शाखा के महानतम कवि थे।

संत कबीर का प्राकट्य भारत वर्ष की पावन भूमि काशी में हुआ था।सन 1398 (संवत 1455), में ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को ब्रह्ममूहर्त में लहरतारा तालाब में कमल पर हुआ था, जहां से नीरू नीमा नामक दंपति उन्हें उठा ले गए थे ।उनकी इस लीला को उनके अनुयायी कबीर साहेब प्रकट दिवस के रूप में मनाते हैं।वो जुलाहे का काम करके अपनी आजीविका चलाते थे। संत कबीर को अपने सच्चे ज्ञान का प्रमाण देने के लिए जीवन में 52 कसौटियों से गुजरना पड़ा। यानी 52 बार उनको मारने का असफल प्रयास किया गया लेकिन उनको कोई भी मार नहीं पाया।

कबीर सागर में वर्णन आता है कि रामानंद जी नीची जाति के लोगों को दीक्षा नहीं देते थे। कबीर रामानंद जी से ही दीक्षा लेना चाहते थे। एक दिन रामानंद जी सुबह नहाने गए थे तभी कबीर जी ढाई साल के बच्चे का रूप धारण करके घाट की सीढ़ियों पर लेट गए । रामानंद जी का पैर कबीर को लग गया तो वो रोने लगे । रामानंद जी ने झुककर उनको उठाया और राम का नाम जपने को कहा। तभी से रामानंद जी कबीर के गुरु हुए और नीची जातियों से नफरत करना भी रामानंद जी ने बंद कर दिया।

संत कबीर जी के शिष्य धर्मदास जी द्वारा लिखित कबीर सागर में दिव्य धर्म यज्ञ का उल्लेख आता है, जिसके अनुसार उस समय के पंडित और मौलवी जो पाखंड और दिखावा करने में अधिक विश्वास करते थे कबीर जी से नफरत करने लगे। एक बार कबीर जी को नीचा दिखाने के लिए उन लोगों ने एक षड्यंत्र रचा। उन लोगों ने मिलकर दुनिया भर में झूठी चिट्ठी लिखकर भिजवा दी कि संत कबीर जी भंडारा कर रहे हैं। जिसमें एक सोने की मोहर, दो दोहड़ तीन दिन तक हर खाने के साथ मुफ्त में दी जाएगी। निश्चित दिन पर काशी में कबीर जी की कुटिया के पास लगभग 18,00,000 लोगों की भीड़ जमा हो गई। ठीक उसी समय एक महान चमत्कार हुआ। केशव बंजारा नाम का व्यापारी 900000 बैलों पर लादकर भंडारे का सामान लेकर आया और सभी लोगों को तीन दिन तक स्वादिष्ट भोजन से तृप्त किया और वादे के अनुसार सारी सामग्री भी बांटी, जिसमें हर खाने के साथ एक सोने की मोहर और दो दोहड़ दी गई । कहा जाता है कि यह सब करने के लिए परमात्मा केशव बंजारा का रूप धर कर आए और यह सब लीला की। इस भंडारे में दिल्ली का बादशाह सिकंदर लोदी भी शामिल हुआ। जिसका मंत्री शेखतकी जो कबीर जी से बहुत ईर्ष्या करता था,वह भी शामिल हुआ। कहा जाता है कि शेखतकी ने वहां भी कबीर साहेब के भंडारे की निंदा की जिसके बाद उसकी जीभ ही बंद हो गई और वह जिंदगी भर बोल नहीं पाया। इस भंडारे के बाद अनेकों लोगों ने कबीर जी के ज्ञान को समझा और उनसे उपदेश लिया। इस भंडारे की याद में कबीर जी के अनुयाई हर साल दिव्य धर्मयज्ञ नाम से उत्सव मनाते हैं।

संत कबीर की भाषा सधुक्कड़ी एवं पंचमेल खिचड़ी है। इनकी भाषा में हिंदी भाषा की सभी बोलियों के शब्द सम्मिलित हैं। राजस्थानी, हरयाणवी, पंजाबी, खड़ी बोली, अवधी, ब्रजभाषा के शब्दों की बहुलता है। ऐसा माना जाता है की रमैनी और सबद में ब्रजभाषा की अधिकता है तो साखी में राजस्थानी व पंजाबी मिली खड़ी बोली की।

संत कबीर  के पास साधु संतों का जमावड़ा लगा  रहता था।संत  कबीर ने कलयुग में पढ़े-लिखे ना होने की लीला की, परंतु वास्तव में वे स्वयं विद्वान थे।  इसका अंदाजा आप उनके दोहों से लगा सकते हैं।

‘हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया’ तो कभी कहते हैं, ‘हरि जननी मैं बालक तोरा’।

 कबीर परमेश्वरयानि  एक ही ईश्वर को मानते थे और संत कबीर जी  कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। मूर्तिपूजा, रोज़ा, ईद, मस्जिद, मंदिर उनका ऐसा मत  था कि इन क्रियाओं से मोक्ष कि प्राप्ति  संभव नहीं है।

“बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर। पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ॥ “

उस समय हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्म के लोग ही संत कबीर जी को अपना शत्रु मानते थे क्योंकि वे अपना इकतारा लेकर दोनों धर्मों को परमात्मा की जानकारी दिया करते थे, वो समझाते थे कि हम सब एक ही परमात्मा के बच्चे हैं । उन्होंने अपनी भाषा बहुत सरल रखी ताकि वो जन – जन तक पहुंच सके। संत कबीर जी को शांतिमय जीवन प्रिय था और वो अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका आदर हो रहा है। कबीर साहेब जी सिर्फ मानव धर्म में विश्वास रखते थे।

कबीर,हाड़ चाम लहू ना मेरे, जाने कोई सतनाम उपासी।

तारन तरन अभय पद दाता, मैं हूं कबीर अविनाशी।।

संत कबीर जी कह रहे हैं कि मेरा शरीर हड्डी और मांस का बना है। जिसको मेरा द्वारा दिया गया सतनाम और सारनाम प्राप्त है, वह मेरे इस भेद को जानता है। मैं ही सबका मोक्षदायक हूँ, तथा मैं ही अविनाशी परमात्मा हूँ।

क्या मांगुँ कुछ थिर ना रहाई, देखत नैन चला जग जाई। एक लख पूत सवा लख नाती, उस रावण कै दीवा न बाती।

यदि एक मनुष्य अपने एक पुत्र से वंश की बेल को सदा बनाए रखना चाहता है तो यह उसकी भूल है। जैसे लंका के राजा रावण के एक लाख पुत्र थे तथा सवा लाख नाती थे। वर्तमान में उसके कुल (वंश) में कोई घर में दीप जलाने वाला भी नहीं है। सब नष्ट हो गए। इसलिए हे मानव! परमात्मा से तू यह क्या माँगता है जो स्थाई ही नहीं है।

संत कबीर ने अपने दोहों के माध्यम से मानव जाति को बहुत बड़ा उपहार दिया है ,महान संत कबीर जी ने सुगम शब्दों में जीवन जीने की कला सिखाई है। संत कबीर के दोहों को सुनकर एक अलग ऊर्जा का संचार होता है। सही क्या है, गलत क्या है ,यह निर्णय लेने की क्षमता स्वतः विकसित होने लगाती है। इसलिए प्रतिदिन संत कबीर के दोहों को सुनना चाहिए और इसे अपने जीवन में उतरना चाहिए।

कबीरदास जी कहते हैं कि यह संसार माया का खेल है माया के खेल में पढ़कर आत्मा अपने परमात्मा को भूल जाता है। परंतु मायाजाल को तोड़कर परमात्मा से मिले बिना उसे शांति किसी तरह से नहीं मिलती । माया के इस जाल को तोड़ने का उपाय केवल सदगुरू की कृपा से ही संभव है , सदगुरू की कृपा बिना परमात्मा का दर्शन होना बहुत कठिन है।

कंचन और कामिनी मनुष्य को माया के फेर में फंसाए रखता है जो इनको छोड़ देता है उसका तो उद्धार हो जाता है पर जो इनके पीछे पड़ा रहता है उसका उद्धार होना बहुत मुश्किल है

कबीर शब्दावली:

इस ग्रंथ में मुख्य रूप से संत कबीर जी ने आत्मा को अपने अनमोल शब्दों के माध्यम से परमात्मा कि जानकारी बताई है।

कबीर दोहवाली:

इस ग्रंथ में मुख्य तौर पर कबीरदास जी के दोहे सम्मलित हैं।

कबीर ग्रंथावली:

इस ग्रंथ में कबीर साहेब जी के पद व दोहे सम्मलित किये गये हैं।

कबीर सागर:

यह सूक्ष्म वेद है जिसमें परमात्मा कि विस्तृत जानकारी है।

कबीरदास पढ़े लिखे नहीं थे, इसलिए उनके दोहों को उनके शिष्यों द्वारा ही लिखा या संग्रीहित किया गया था। उनके दो शिष्यों, भागोदास और धर्मदास ने उनकी साहित्यिक विरासत को संजोया। कबीरदास के छंदों को सिख धर्म के ग्रंथ “श्री गुरुग्रन्थ साहिब” में भी शामिल किया गया है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में संत कबीर के 226 दोहे शामिल हैं और श्री गुरु ग्रंथ साहिब में शामिल सभी भक्तों और संतों में संत कबीर के ही सबसे अधिक दोहे दर्ज किए गए हैं। क्षितिमोहन सेन ने कबीरदास के दोहों को काशी सहित देश के अन्य भागों के सन्तों से एकत्र किया था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इनका अंग्रेजी अनुवाद किया और कबीरदास की वाणी को विश्वपटल पर लाये। हिन्दी में बाबू श्यामसुन्दर दास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी सहित अनेक विद्वानों ने कबीर और उनकी साहित्यिक साधना पर ग्रन्थ लिखे हैं।

कबीर पंथ (कबीर का पथ) कबीर साहेब के तत्वज्ञान पर आधारित एक आध्यात्मिक सत भक्ति मार्ग है। यह मुक्ति के साधन के रूप में सच्चे सतगुरु के रूप में उनकी भक्ति पर आधारित है। इसके अनुयायी कई धार्मिक पृष्ठभूमि से हैं क्योंकि कबीर ने कभी भी धर्म परिवर्तन के पक्ष में नहीं बोला बल्कि उनकी सीमाओं पर प्रकाश डाला। कबीर के संबंध में, उनके अनुयायी उनका प्रकट उत्सव मनाते हैं।

पवित्र वेदों में लिखा है कि हर युग में पूर्ण परमात्मा जिसके एक रोम कूप में करोड़ सूर्य तथा करोड़ चंद्रमा की मिली जुली रोशनी से भी अधिक प्रकाश है, अपने निजधाम सतलोक से स:शरीर आते हैं और आकर अच्छी आत्माओ को मिलते हैं।
जिन-जिन पुण्यात्माओं ने परमात्मा को प्राप्त किया है उन्होंने बताया कि सब का मालिक एक है। परमेश्वर का वास्तविक नाम अपनी-अपनी भाषाओं में कवि र्देव (वेदों में संस्कृत भाषा में) तथा हक्का कबीर (श्री गुरु ग्रन्थ साहेब में पृष्ठ 721 पर) तथा सत् कबीर (श्री धर्मदास जी की वाणी में क्षेत्रीय भाषा में) तथा बन्दी छोड़ कबीर (सन्त गरीबदास जी के सद्ग्रन्थ में क्षेत्रीय भाषा में) कबीरा, कबीरन, खबीरा या खबीरन् (श्री कुरान शरीफ़ सूरत फुरकानी 25, आयत 19, 21, 52, 58, 59 में अरबी भाषा में) बताया गया है।

गरीब जिसकुं कहत कबीर जुलाहा।

सब गति पूर्ण अगम अगाहा ।।

कबीर साहेब जी का पंथ अर्थात् मार्ग या रास्ता । जो मार्ग कबीर साहेब ने बताया उस पर चलने वाले को कबीरपंथी कहते हैं।

बारह पंथ काल के माने जाते है। बारह पंथों का विवरण अनुराग सागर व कबीर चरित्र बोध पृष्ठ नं. 1870 से:

  1. नारायण दास जी का पंथ ( मृत्यु अंधा दुत)।
  2. यागौदास (जागू) पंथ
  3. सूरत गोपाल पंथ (काशी कबीर चौरा के पारखी सिद्धांत)
  4. मूल निरंजन पंथ
  5. टकसार पंथ
  6. भगवान दास (ब्रह्म) पंथ
  7. सत्यनामी पंथ
  8. कमाली (कमाल का) पंथ
  9. राम कबीर पंथ
  10. प्रेम धाम (परम धाम) की वाणी पंथ
  11. जीवा पंथ
  12. गरीबदास पंथ

कबीर साहेब के परम शिष्य थे सेठ धनी धर्मदास जी लेकिन धर्मदास जी का ज्येष्ठ पुत्र नारायण दास काल का भेजा हुआ दूत था। बार-बार समझाने पर भी नारायण दास ने परमेश्वर कबीर साहेब जी से उपदेश नहीं लिया। पुत्र प्रेम में व्याकुल धर्मदास जी को परमेश्वर कबीर साहेब जी ने नारायण दास जी का वास्तविक स्वरूप दर्शाया। संत धर्मदास जी ने कहा कि हे प्रभु ! मेरा वंश नारायण दास तो काल का वंश है। परमेश्वर कबीर साहेब जी ने कहा कि धर्मदास वंश की चिंता मत कर।

मानव कल्याण के लिए अलग से तेरा बयालीस पीढ़ी तक वंश चलेगा। तब धर्मदास जी ने पूछा कि हे दीन दयाल! मेरा तो इकलौता पुत्र नारायण दास ही है। तब परमेश्वर ने कहा कि आपको एक शुभ संतान पुत्र रूप में मेरे आदेश से प्राप्त होगी। उससे तेरा ब्यालिस वंश चलेगा। उसमें प्रथम पुत्र का नाम चूड़ामणी रखना। कुछ समय पश्चात् भक्तमति आमिनी देवी को संतान रूप में पुत्र प्राप्त हुआ उसका नाम श्री चूड़ामणी जी रखा गया। बड़ा पुत्र नारायण दास अपने छोटे भाई चूड़ामणी जी से द्वेष करने लगा। जिस कारण से श्री चूड़ामणी जी बांधवगढ़ त्याग कर कुदुर्माल नामक शहर (मध्य प्रदेश) में रहने लगे।

कबीर परमेश्वर ने संत धर्मदास जी से कहा था कि अपने पुत्र चूड़ामणी को शिक्षा – दीक्षा देना जिससे इनमें धार्मिकता बनी रहेगी तथा वंश ब्यालिस चलता रहेगा। कबीर साहेब ने धर्मदास से कहा था कि आपकी सातवीं, ग्यारहवीं, तेरहवीं और सत्रहवीं वंश को काल फंसाने का प्रयास करेगा, उस वक्त चुड़ामनि शाखा के अन्य उपशाखा वाले संत महंत के द्वारा मानव का कल्याण होगा, उसका दस हज़ार शाखा होंगे और वह सभी सत पुरुष के अंश कहलायेंगे, लेकिन काल के दुत सब अपने मनगढ़ंत बुद्धि के द्वारा लोगों को कहेंगे कि वंश ४२ का नाश हो गया वंश ४२ समाप्त हो गया, लेकिन ऐसा नहीं है वंश ४२ चलता हि रहेगा। प्रमाण कबीर साहेब की लिखी वाणी से मिलता है।

सुन धर्मनि जो वंश नशाई, जिनकी कथा कहूँ समझाई।

काल चपेटा देवै आई, मम सिर नहीं दोष कछु भाई।।

सप्त, एकादश, त्रयोदस अंशा, अरु सत्रह ये चारों वंशा।।

इनको काल छलेगा भाई, मिथ्या वचन हमारा न जाई।।

जब-2 वंश हानि होई जाई, शाखा वंश करै गुरुवाई।।

दस हजार शाखा होई है, पुरुष अंश वो ही कहलाही है।।

वंश भेद यही है सारा, मूढ जीव पावै नहीं पारा।।99।।

भटकत फिरि हैं दोरहि दौरा, वंश बिलाय गये केही ठौरा।।

सब अपनी बुद्धि कहै भाई, अंश वंश सब गए नसाई।।

उपरोक्त वाणी से स्पष्ट है ०७वां, ११वां, १३वां और १७वां वंश के समय में चुड़ामनि साहेब के जो दस हज़ार उपशाखा होंगे उसके द्वारा जीव पार होंगे और वंश ब्यालिस भी चलता रहेगा।

कबीर सागर में कबीर वाणी नामक अध्याय में पृष्ठ 135-137 पर जो बारह पंथों का विवरण देते हुए वानी लिखी है वो मिलावटी व अधुरा है :

सम्वत् सत्रासै पचहत्तर होई, तादिन प्रेम प्रकटें जग सोई।

साखी हमारी ले जीव समझावै, असंख्य जन्म ठौर नहीं पावै।

बारवें पंथ प्रगट ह्नै बानी, शब्द हमारे की निर्णय ठानी।

अस्थिर घर का मरम न पावैं, ये बारा पंथ हमही को ध्यावैं।

बारवें पंथ हम ही चलि आवैं, सब पंथ मेटि एक ही पंथ चलावें।

सबका कल्याण हो

Credit:

लेखिका: बिट्टू मिश्रा Bittu Mishra

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