Monday, June 2, 2025
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गायत्री मंत्र – कहाँ से आयी? वेद क्या कहता है? लाभ क्या है?

धर्मानुरागी सजन्नों , माताओं एवं बहनों माता गायत्री की उत्पत्ति कैसे हुई और वेदों के अनुसार उनका स्वरूप कैसा है, क्या आप इसे जानते हैं?
सनातन धर्म में गायत्री मंत्र की इतनी महिमा है कि इसके बिना कोई भी पूजा, यज्ञ संपन्न नहीं माना जाता। मान्यता है कि 24 अक्षरों का गायत्री मंत्र का जाप आपके सभी पाप नष्ट कर देता है। गायत्री मंत्र का प्रभाव सब जानते हैं लेकिन बेहद कम लोग माता गायत्री के बारे में जानते हैं। कई लोग नहीं जानते कि माता गायत्री की उत्पत्ति कैसे हुई और उनका स्वरूप कैसा है। तो चलिए जानते हैं इस बारे में…

माता गायत्री शक्ति की वह केन्द्र हैं , जिसके अंतर्गत ब्रह्माण्ड की सभी शक्तियां अपनी अपनी क्षमता और सीमा के अनुसार विभिन्न कार्यों का सम्पादन करते हैं।इन्हीं का नाम देवता है। ये ईश्वरीय सत्ता के अंतर्गत उसी के अंश रूपी इकाइयाँ हैं जो सृष्टि संचालन के विशाल कार्यक्रम में अपने – अपने कर्तव्यों का निर्वहन करतें है।
गायत्री एक सरकार एवं मशीन के सदृश है जिसके अंग प्रत्यंगों के रूप में सभी देवता गुँथे हुए हैं। गायत्री के तीन अक्षर सत, रज, तम, तीन तत्वों के प्रतीक हैं। इन्हीं को स्थिति के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु, महेश-सरस्वती, लक्ष्मी, काली कहते हैं। इन्हीं तीन श्रेणियों में विश्व की सभी स्थूल एवं सूक्ष्म शक्तियों की गणना होती है। जितनी भी शुभ-अशुभ, उपयोगी अनुपयोगी, शान्ति-अशाँति की प्रक्रियाएं दृष्टिगोचर होती हैं वे इन्हीं सत, रज, तम तत्वों के अंतर्गत हैं और यह तीन तत्व गायत्री के तीन चरण हैं। इस प्रकार समस्त शक्ति तत्वों का मूल आधार गायत्री ही है।

देवीह्यकोऽग्र आसीत्। सैव जगदण्डमसृजत्…… तस्या एव ब्रह्मा अजीजनत्। विष्णुरजी जनत्…… सर्वमजी जनत्…..सैषा पराशक्तिः।
-वृहवृचोपनिषद
सृष्टि के आरम्भ में वह एक ही देवी शक्ति थी। उसी ने यह ब्रह्माण्ड बनाया। उसी से ब्रह्मा आये । उसी ने विष्णु, रुद्र उत्पन्न हुए। सब कुछ उनसे ही उत्पन्न हुआ। ऐसी ही शक्ति हैं माता गायत्री

विभूतियों का भण्डार:

इस महाशक्ति का विस्तार अत्यन्त व्यापक है जब समस्त सृष्टि की अगणित प्रक्रियाओं का संचालन उसी के द्वारा होता है तो कितने प्रकार की शक्तियाँ उसके अंतर्गत काम करती होंगी, इसकी कल्पना कर पाना भी कठिन है। पर मनुष्य सीमित है। उसकी आवश्यकतायें एवं आशंकायें भी सीमित हैं, जिन वस्तुओं को प्राप्त करके उसका व्यक्तित्व निखर उठता है एवं मन उल्लसित हो जाता है वे विभूतियाँ भी सीमित हैं। यह सीमित वस्तुएं गायत्री का एक बहुत छोटा अंशमात्र है। मनुष्यों में जो कुछ प्रशंसनीय एवं आकर्षक विशेषतायें दिखाई पड़ती है उन सबको उस महाशक्ति का महाप्रसाद समझना चाहिए। मानव शरीर में वह शक्ति किन प्रमुख रूपों में अधिष्ठित है इसका परिचय देते हुए माता गायत्री स्वयं कहती है :-

अहं बुद्धि रहं श्रीश्च् धृतिः कीर्तिः स्मृतिस्तथा।
श्रद्धा मेधा दया लज्जा क्षुधा तृष्णा तथा क्षमा॥
कान्तिः शान्तिः पिपासा च निद्रा तन्द्रा जरा जरा। विद्याविद्या स्पृहा वाँछा शक्ति श्चाशक्ति रेवच॥
वसा मज्जा च त्वक चाहं दृष्टिर्वागनृता ऋता।
परामध्या च पश्यन्ती नाडयेऽहं विविधाश्च् याः॥
किं नाहं पश्य संसारे मद्वियुक्तं किमस्ति हि।
सर्वमेवाहभित्येव निश्च्यं विद्धि पद्मज।

मैं क्या नहीं हूँ? इस संसार में मेरे सिवाय और कुछ नहीं है। बुद्धि, श्री, धृति, कीर्ति, स्मृति, श्रद्धा, मेधा, लज्जा, क्षुधा, तृष्णा, क्षमा, कान्ति, शाँति, पिपासा, निद्रा, तन्द्रा, जरा, अजरा, विद्या, अविद्या, स्पृहा, वांछा, शक्ति, वसा, मज्जा, त्वचा, दृष्टि, असत और संत वाणी, परा, मध्यमा, पश्यन्ती, नाड़ी संस्थान इत्यादि मैं ही हूँ।
देवी गायत्री को ज्ञान, पवित्रता, ऊर्जा और वेदों की देवी माना जाता है। इन्हें सुबह की देवी भी कहा जाता है। गायत्री मंत्र कलियुग में बहुत प्रभावशाली माना जाता है। श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कन्द में लिखा है कि भगवान् श्रीकृष्ण भी स्नान करने के बाद गायत्री मंत्र का जाप करते थे। गायत्री मंत्र का जाप वैदिक काल से होता आ रहा है और सामान्य लोगों को भी इसकी जानकारी है लेकिन माता गायत्री के उत्पत्ति और उनके स्वरूप के विषय में बेहद कम लोगों को पता है।

एक पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार जब विश्वामित्र तपस्या कर रहे थे, तो माया बार-बार उनकी तपस्या भंग कर दे रही थी। तब विश्वामित्र ने माता गायत्री की शरण ली और वो गायत्री मंत्र का पाठ करने लगे। – ‘ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्’, जिसका अर्थ है कि ‘हे ईश्वर, मेरे प्राण स्वरूप, दुःखनाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देव स्वरूप, परमात्मा! हम आपको अंतरात्मा में धारण करते हैं। आप हमारी बल, बुद्धि, विद्या को सन्मार्ग पर प्रेरित करें’। इस प्रकार खुद को भगवान के प्रति सर्मिपत कर विश्वामित्र तपस्या में लीन हो गये। माया विश्वामित्र के पास आईं लेकिन इस बार उनकी तपस्या भंग न कर सकी और उनकी परिक्रमा कर वापस लौट गयी। विश्वामित्र तपस्या में लगे रहे। तब ब्रह्मा सभी देवताओं को लेकर वहाँ पहुँचे और कहा – “आज से आप ब्रह्मर्षि हुए”। विश्वामित्र ने कहा – “यदि मैं ब्रह्मर्षि हूँ, तो वेद मेरा वरण करें”। विश्वामित्र के पास वेद आ गये और इस तरह विश्वामित्र सभी वेदों के स्वामी बन गए। गायत्री मंत्र के द्वारा उनकी तपस्या पूर्ण हो गई। शास्त्रों के अनुसार, देवी गायत्री की उत्पत्ति ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष दशमी को माना जाता है और इस दिन इनके जन्म दिवस यानि गायत्री जयंती के रूप में भी मनाया जाता है। गायत्री मंत्र की उत्पत्ति के साक्षी विश्वामित्र थे, जिन्होंने विश्व का कल्याण करने के लिए गायत्री मंत्र को जनमानस में फैलाया।
प्रिय भक्तों आइये हमलोग ‘गायत्री मंत्र’ का श्रवण करतें हैं।

माता गायत्री का स्वरूप:

देवी गायत्री का स्वरुप ज्ञान से भरा है। उनके पांच सिर दर्शाए जाते हैं, जिनमें से चार सिर चार वेदों का प्रतिनिधित्व करते हैं और पांचवां सर्वशक्तिमान ईश्वर का प्रतिनिधित्व करता है। शारदा तिलक में गायत्री के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है- ‘गायत्री पंचमुखा हैं, ये कमल पर विराजमान होकर रत्न-हार-आभूषण धारण करती हैं। इनके दस हाथ हैं, जिनमें शंख, चक्र, कमलयुग्म, वरद, अभय, अंकुश, उज्ज्वल पात्र और रुद्राक्ष की माला आदि है। पृथ्वी पर जो मेरु नामक पर्वत है, उसकी चोटी पर इनका निवास स्थान है। सुबह, दोपहर और शाम को इनका ध्यान करना चाहिए। रुद्राक्ष की माला से ही इनका जाप करना चाहिए’।

गायत्री ज्ञान-विज्ञान की महत्ता बताते हुए उपनिषद्कार ने बताया है कि ज्ञानपूर्वक की हुई उपासना से आत्मा में सन्निहित दिव्य तत्वों का विकास होता है और इस जीवन तथा संसार में जो कुछ प्राप्त होने योग्य है वह सभी कुछ उसे प्राप्त हो जाता है।
यो ह वा एवं चित् स ब्रह्म वित्पुण्याँ च कीर्ति लभते सुरभींश्च् गन्वान्। सोऽपहत पाप्मानन्ताँ श्रिय मश्नुतेय एवं वेद, यश्चौवं विद्वानेवमेत वेदानाँ मातरं सावित्री सम्पदभुपनिषद मुपास्त इति ब्राह्मणम्।

गायत्री उपनिषद्:

जो इस प्रकार वेदमाता गायत्री को जान लेता है वह ब्रह्मवित्, पुण्य, कीर्ति एवं दिव्य गन्धों को प्राप्त करता है और निष्पाप होकर श्रेय का अधिकारी बनता है
भूमिरन्तरिक्षं द्यौरित्यष्टा व क्षराण्यष्टाक्षर हवा एवं गायत्र्यै पद मेतदुहैवास्या एतत्सयावेदतेषु लोकेषु तावद्धि जर्यात योऽस्याएतदेवं पदं वेद।
वृहदारण्यक 5।14।1
भूमि, अन्तरिक्ष, द्यौ ये तीनों गायत्री के प्रथम पाद के आठ अक्षरों के बराबर हैं। जो गायत्री के इस प्रथम पाद को जान लेता है वो तीनों लोकों में विजयी होता है।

गायत्री का व्याख्या विस्तार:

गायत्री महामंत्र के 24 अक्षरों में इतना ज्ञान विज्ञान भरा हुआ है कि उसका अन्वेषण करने से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है। ब्रह्माजी ने गायत्री के चार चरणों की व्याख्या स्वरूप चार मुखों से चार वेदों का वर्णन किया। महर्षि वाल्मीक ने अपनी वाल्मीक रामायण की रचना करते हुए एक-एक हजार श्लोकों के बाद क्रमशः गायत्री के एक-एक अक्षर से आरम्भ होने वाले श्लोक बनाये। इस प्रकार वाल्मीक रामायण में प्रत्येक एक हजार श्लोकों के बाद गायत्री के एक अक्षर का सम्पुट लगा हुआ है। महर्षि वाल्मीक गायत्री के महत्व को जानते थे उन्होंने अपने महाकाव्य में इस प्रकार का सम्पुट लगाकर अपने ग्रन्थ की महत्ता में और भी अधिक अभिवृद्धि कर ली।
श्रीमद्भागवत पुराण की भी गायत्री महामन्त्र की व्याख्या स्वरूप ही रचना हुई। श्रीहरि टीका में इस रहस्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है।

सत्यं परं धीमहि-तं धीमहि इति गायत्र्या प्रारम्भेण गायत्र्याख्या ब्रह्मविद्या रूपभेत्पुराण इति।
वेद व्यास जी ने गायत्री प्रतिपाद्य सत्यं परं धीमहि तत्व में ही भागवत का प्रारम्भ मूल है। गायत्री के ही दो अक्षरों की व्याख्या में एक-एक स्कंध बनाकर 12 स्कंध पूरे किये हैं।
अंतर्जगत के गुप्त तत्व

मनुष्य के अंतर्जगत में तो विलक्षण शक्तियाँ भरी हुई है, उनका जागरण भी गायत्री महामंत्र द्वारा ही संभव है। इस महामंत्र का एक-एक अक्षर शक्ति बीज है। इन शक्ति बीजों के स्पर्श से शरीर में अवस्थित प्रधान षटचक्रों एवं अठारह उपचक्रों का इस प्रकार कुल 24 चक्रों का जागरण गायत्री उपासना से होता है। इन रत्न भण्डार सरीखे चक्र उपचक्रों में से प्रत्येक में ये शक्तियाँ और सिद्धियाँ भरी हुई हैं जिन्हें प्राचीन काल में ऋषि मुनि प्राप्त करके अपने को ईश्वरीय तत्वों का

अधिकारी-उत्तराधिकारी बनाये हुए थे। इसका प्रमाण इस प्रकार मिलता है :-

चतुर्विशाँक्षरी विद्या पर तत्व विनिर्मिता।
तत्कारात् यातकार पर्यन्त शब्द ब्रह्मत्वरूपिणी।
-गायत्री तत्र
अर्थात्-’तत्’ शब्द से लेकर प्रचोदयात् शब्द पर्यन्त 24 अक्षरों वाली गायत्री पर तत्व अर्थात् पराविद्या से ओत-प्रोत है।

माता गायत्री का उत्पत्ति की कई अलग-अलग कहानियां हैं । कुछ मान्यताओं के अनुसार, माता गायत्री ब्रह्मा जी की पत्नी हैं, जबकि कुछ अन्य में उन्हें ब्रह्मा जी की पुत्री माना जाता है । एक कथा के अनुसार, गायत्री मंत्र का उच्चारण ब्रह्मा जी ने किया था, जिससे गायत्री माता अवतरित हुई थीं। एक कथा में बताया गया है कि गायत्री को ब्रह्मा जी ने अपने योग बल से गाय के गर्भ में भेजा था और सभी देवी-देवताओं ने उन्हें आशीर्वाद दिया था।गायत्री को अहीर या गोप पुत्री के रूप में भी वर्णित किया गया है।

साथियों क्या आप जानतें है कि गायत्री को शाप क्यों मिला था ?

गायत्री को श्राप इसलिए मिला था ताकि उसका दुरुपयोग न हो सके। पूर्वकाल में, ऋषियों ने देखा कि अनाड़ी साधकों द्वारा गायत्री मंत्र का जाप करने से मानसिक अराजकता और पीढ़ियों के बिगड़ने की स्थिति उत्पन्न हो रही थी. इसलिए, उन्होंने मंत्र को श्रापित कर दिया ताकि उसका प्रयोग केवल योग्य और अनुभवी साधकों द्वारा किया जाए। इसलिए गायत्री मंत्र का पाठ किसी योग्य गुरु के सानिध्य में ही करना चाहिये। यदि योग्य गुरु ना मिले तो गायत्री मंत्र का केवल श्रवण पवित्र ह्रदय से करना चाहिए। इस घोर कलियुग में केवल
‘गायत्री मंत्र ‘ के सहारे भवसागर पर किया जा सकता है।

सब का कलयाण हो।

Credits:

लेखिका: बिट्टू मिश्रा Bittu Mishra

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