
वट पूर्णिमा व्रत को वट सावित्री व्रत भी कहा जाता है। वट वृक्ष का पूजन और सावित्री-सत्यवान की कथा का स्मरण करने के विधान के कारण ही यह व्रत वट सावित्री के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
सावित्री को भारतीय संस्कृति में ऐतिहासिक चरित्र माना जाता है। सावित्री का अर्थ वेद माता गायत्री और सरस्वती भी होता है। सावित्री का जन्म भी विशिष्ट परिस्थितियों में हुआ था। कहा जाता है कि भद्र देश के राजा अश्वपति की कोई संतान नहीं थी। उन्होंने संतान की प्राप्ति के लिए मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन एक लाख आहुतियाँ दीं। अठारह वर्षों तक यह क्रम जारी रहा। इसके बाद सावित्रीदेवी ने प्रकट होकर वर दिया कि ‘राजन तुझे एक तेजस्वी कन्या पैदा होगी।’ सावित्रीदेवी की कृपा से जन्म लेने की वजह से कन्या का नाम सावित्री रखा गया।
सावित्री बड़ी होकर बेहद रूपवान थीं । योग्य वर न मिलने की वजह से सावित्री के पिता दुःखी थे। उन्होंने कन्या को स्वयं वर तलाशने भेजा। सावित्री तपोवन में भटकने लगी। वहाँ साल्व देश के राजा द्युमत्सेन रहते थे।द्युमत्सेन का राज्य किसी ने छीन लिया था। उनके पुत्र का नाम सत्यवान था। उनके पुत्र सत्यवान को देखकर सावित्री ने पति के रूप में उनका वरण कियाकहा जाता है कि साल्व देश पूर्वी राजस्थान या अलवर अंचल के इर्द-गिर्द था। सत्यवान अल्पायु थे। वे वेद ज्ञाता थे। नारद मुनि ने सावित्री से मिलकर सत्यवान से विवाह न करने की सलाह दी थी परंतु सावित्री ने सत्यवान से ही विवाह रचाया। पति की मृत्यु की तिथि में जब कुछ ही दिन शेष रह गए थे , तब सावित्री ने घोर तपस्या की थी, जिसका फल उन्हें बाद में मिला था।
वट पूर्णिमा व्रत 2025 की तिथि और समय:
1.वट सावित्री अमावस्या (उत्तर भारत में)
- तिथि: 26 मई 2025, सोमवार
- अमावस्या तिथि का आरंभ: 26 मई 2025 को दोपहर 12:11 बजे
- अमावस्या तिथि का समापन: 27 मई 2025 को सुबह 8:31 बजे
- पूजा मुहूर्त: सुबह 8:52 बजे से 10:35 बजे तक
- व्रत विधि: विवाहित महिलाएं इस दिन निर्जल उपवास रखती हैं और वट (बरगद) के वृक्ष की पूजा करती हैं, ताकि उनके पतियों की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि हो।
2. वट पूर्णिमा (महाराष्ट्र, गुजरात, दक्षिण भारत में)
- तिथि: 10 जून 2025, मंगलवार
- पूर्णिमा तिथि का आरंभ: 10 जून 2025 को सुबह 11:35 बजे
- पूर्णिमा तिथि का समापन: 11 जून 2025 को दोपहर 1:13 बजे
- पूजा मुहूर्त: पूरे दिन शुभ मुहूर्त रहता है, विशेष अभिजीत मुहूर्त की आवश्यकता नहीं होती।
- व्रत विधि: विवाहित महिलाएं इस दिन वट वृक्ष की पूजा करती हैं और सावित्री की कथा सुनती हैं, जिन्होंने अपने पति सत्यवान के प्राण यमराज से वापस लाए थे।
पूजा विधि और महत्व:
वट पूर्णिमा व्रत में महिलाएं वट वृक्ष के चारों ओर सात बार परिक्रमा करती हैं, उसकी जड़ में तांबे की तार लपेटती हैं, और सावित्री-सत्यवान की कथा सुनती हैं। इस दिन व्रत रखने से पति की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है, ऐसी मान्यता है।

जब सत्यवान की मृत्यु का समय निकट आया, सावित्री ने तीन दिन का उपवास रखा। सत्यवान की मृत्यु के दिन, वह उनके साथ जंगल गई और वन में ही सत्यवान की मृत्यु हो गई। सावित्री ने यमराज का पीछा किया और अपने दृढ़ निश्चय और प्रेम से प्रभावित करके यमराज से तीन वरदान प्राप्त किए।
पहले वरदान में उसने अपने ससुराल वालों के राज्य की वापसी मांगी, दूसरे में अपने पिता के लिए एक पुत्र, और तीसरे में अपने लिए संतान मांगी। यमराज ने वरदान स्वीकार किए और सत्यवान को जीवनदान दिया।
सावित्री वट वृक्ष के पास लौट आई और सत्यवान जीवित हो गए । इस घटना के बाद, महिलाएं वट सावित्री व्रत रखती हैं और वट वृक्ष की पूजा करती हैं ताकि उनके पति की आयु लंबी हो और उनका वैवाहिक जीवन सुखी बना रहे।
वट पूर्णिमा व्रत को सुहागन महिलाएं करती हैं।

वट पूर्णिमा का उपवास सुहागन महिलाएं ही करती हैं। इस दिन महिलाएं सुबह उठकर नए कपड़े पहनती हैं और सोलह श्रृंगार करती हैं। इस दिन वट वृक्ष के नीचे बैठ कर पूजा आराधना की जाती है। पूजा के लिए एक बांस की टोकरी में सात तरह के अनाज रखे जाते हैं और उसे कपड़े से ढ़क दिया जाता है। साथ ही दूसरी टोकरी में माता सावत्री की प्रतिमा रखी जाती है और उसको भी कपड़े से ढ़क दिया जाता है । इन दोनों टोकरी को वट वृक्ष के नीचे रखकर , वट वृक्ष और देवी सावित्री और सत्यवान की एक साथ पूजा की जाती है । वट वृक्ष पर जल चढ़ा कर कुमकुम और अक्षत अपर्ण कर , लाल सूत के धागे से वट वृक्ष को बांधकर सात बार परिक्रमा की जाती है । इसके बाद वट सावित्री की कथा सुनने के बाद दान दक्षिणा देकर, चने-गुड़ का प्रसाद पाया जाता है।नयी विवाहित स्त्रियां वट वृक्ष पर सुहाग का सामान भी अर्पित करतीं हैं ।
दार्शनिक दृष्टि से देखें तो वट वृक्ष को दीर्घायु और अमरत्व-बोध का प्रतीक माना गया है। वट वृक्ष ज्ञान व निर्वाण का भी प्रतीक है। भगवान बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। इसलिए वट वृक्ष को पति की दीर्घायु के लिए पूजना इस व्रत का अंग बना। महिलाएँ व्रत-पूजन कर कथा कर्म के साथ-साथ वट वृक्ष के आसपास सूत के धागे परिक्रमा के दौरान लपेटती हैं।
वट सावित्री व्रत सौभाग्य को देने वाला और संतान की प्राप्ति में सहायता देने वाला व्रत माना गया है। भारतीय संस्कृति में यह व्रत आदर्श नारीत्व का प्रतीक बन चुका है। इस व्रत की तिथि को लेकर भिन्न मत हैं। स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यह व्रत करने का विधान है, वहीं निर्णयामृत आदि के अनुसार ज्येष्ठ मास की अमावस्या को व्रत करने की बात कही गई है।
पाराशर मुनि के अनुसार- ‘वट मूले तोपवासा’ ऐसा कहा गया है। पुराणों में यह स्पष्ट किया गया है कि वट में ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों का वास है। इसके नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से मनोकामना पूरी होती है। वट वृक्ष अपनी विशालता के लिए भी प्रसिद्ध है। संभव है वनगमन में ज्येष्ठ मास की तपती धूप से रक्षा के लिए भी वट के नीचे पूजा की जाती रही हो और बाद में यह धार्मिक परंपरा के रूपमें विकसित हो गई हो। परंतु गीता अध्याय 6 के श्लोक 16 में व्रत करने कि मनाहि है।
गीता के अध्याय 6 के श्लोक 16 में, भगवान कृष्ण बताते हैं कि योग साधना के लिए न तो बहुत खाना चाहिए, न ही बिल्कुल नहीं खाना चाहिए (व्रत करना)। इस श्लोक में, अत्यधिक भोजन और व्रत दोनों को योग साधना के लिए बाधक बताया गया है।
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