Tuesday, June 24, 2025
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What is the story of Hanuman Chalisa? Know its history

श्रीहनुमानचालीसा की कथा

प्रभु श्रीराम जी के परमप्रिय भक्त, श्री हनुमान जी के प्रिय भक्तों, आज आपको ‘श्रीहनुमानचालीसा’ लिखने का कारण और उसके गूढ़ तत्वों के बारे में उल्लेख करते हुए हमें अपार हर्ष हो रहा है। ‘श्रीहनुमानचालीसा’ की रचना गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने की थी। भक्तों आपको ये जानकर आश्चर्य होगा की इसकी रचना गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने 16वीं शताब्दी में उस समय के मुस्लिम शासक अकबर के कारावास में बैठकर की थी। अब आप सोचेंगे की गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने ऐसा कौन सा अपराध किया था, जिसके फल स्वरुप उन्हें कारावास का दंड भुगतना पड़ा। जबकि वो तो इतने बड़े संत थे कि उनका प्रकृति और हर जीवों के प्रति अति उदारभाव था। जिसका उल्लेख हमें उनकी रचना ‘श्रीरामचरितमानस’ में चौपाई के रुप में भी दिखाई देता है। जिसमें उन्होंने लिखा है कि-
सिया राममय सब जग जानी करहुं प्रणाम जोर जुग पानी।

अर्थात वो सारे संसार को सियाराममय जानकर और दोनों हाथों को जोड़कर प्रणाम करते हैं। उनको इस जगत के जड़ और चेतन में केवल और केवल श्री सीताराम जी के दर्शन होते हैं। और इसी कारण हम ये समझ सकते हैं कि वो ज्ञान या अज्ञानवश कैसे कोई अपराध किसी के भी प्रति कर सकते हैं, जिसके फलस्वरुप उन्हें कारावास की सज़ा भुगतनी पड़ी। तो आईये अब हम आपको इसका एक गूढ़ रहस्य बताते हैं, जो निम्नलिखित प्रकार से है-

एक बार गोस्वामी श्री तुलसीदास जी आगरा में अपनी कुटिया में बैठकर श्रीराम जी की भक्ती में लीन होकर और भावविभोर होकर श्रीराम जी के एक भजन की रचना बड़ी तन्मयता के साथ कर रहे थे। वो भजन की रचना में इतने तल्लीन थे कि उन्हें बाहरी आडम्बर का कुछ पता ही नही चल रहा था। उनकी कुटिया के सामने से एक शव यात्रा जा रही थी। जैसा की होता है, सभी लोग बड़े दुःखी मन से ‘राम नाम सत्य है’ कहते हुए जा रहे थे। वातावरण काफी गम्भीर था… आसपास के लोग भी दुःखी होकर उस शव यात्रा को जाते हुए देख रहे थे। उसी समय उस शव की पत्नी भी उस यात्रा में शामिल थी। उसने अचानक देखा कि तुलसीदास जी भजन लिखने में तल्लीन हैं। उसके मन में विचार आया कि, क्यों न, इनके दर्शन करती चलूं। जैसे ही उस पत्नी ने तुलसीदास जी के पास आकर उनके चरण छुए तो तुलसीदास जी के मुख से निकल गया, “सौभाग्यवती भवः”! उस पत्नी ने आश्चर्यभाव से तुलसीदास जी से कहा कि, “प्रभु ये आप क्या कह रहे हैं!” तो उन्होंने पूछा, “क्यूँ? क्या हुआ?” तब उस पत्नी ने कहा कि, “सामने जो शव यात्रा जा रही है, वो मेरे पति की है।” तब श्री तुलसीदास जी ने श्रीराम जी को याद करके कहा, “हे प्रभू! ये मेरे मुख से क्या निकल गया!” उन्हें बड़ा पश्चाताप हुआ कि अब मैं क्या करूँ? पर कहते हैं ना…..
प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर

प्रभू को नियम बदलते देखा। अपना मान टले टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा ।।
भक्तों ! प्रभु श्रीराम जी की लीला अपने भक्तों के साथ हर समय होती रहती है। घनघोर आश्चर्य की बात देखिए, वो शव उठकर बैठ गया। सभी लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। चारों ओर तुलसीदास जी की जय जयकार होने लगी। सभी कहने लगे कि तुलसीदास जी ऐसे चमत्कारी संत हैं, जो मुर्दे में भी जान फूंक देते हैं।

इस घटना का ये असर हुआ कि उनकी ख्याति चारों ओर फैलने लगी। और ये ख्याति उस समय के मुस्लिम शासक अकबर के पास भी पहुँची। अकबर के दरबारी अकबर से कहने लगे कि, “महाराज ! आगरा में तुलसीदास नाम के एक ऐसे संत हैं, जिन्होंने एक मुर्दे को ज़िन्दा कर दिया हैं। वो प्रभु श्रीराम जी के असीम भक्त हैं। उन्होंने हिन्दू धर्म की एक बड़ी पुस्तक ‘श्रीरामचरित मानस’ नाम से लिखी है और वो भजन भी लिखते और गाते रहते हैं। लाखों की तादाद में जनता उनका आर्शिवाद लेने जाती रहती है। उनके आर्शिवाद से और उनके दर्शन से ही सब लोगों के काम हो जाया करते हैं।” तब अकबर के मन में भी श्री तुलसीदास जी से मिलने की इच्छा प्रकट हुई। उसने अपने सैनिकों को श्री तुलसीदास जी के पास कई उपहार सहीत भेजा और कहा कि, “जाओ, उन्हें यहाँ बुलाकर ले आओ।”
जब वो सैनिक श्री तुलसीदास जी के पास पहुँचे तब उन्होंने अकबर का भेजा हुआ सारा उपहार देकर कहा कि, “अकबर ने आपको अपने दरबार में बुलाया है। कृपया आप हमारे साथ चलिये।” तब श्री तुलसीदास जी ने कहा कि, “मुझे क्षमा करें और ये उपहार भी आप ले जाऐं। मुझे इनकी आवश्यकता नही है और मैं कहीं जा भी नहीं सकता।” इतना कहकर वो फिर से अपने प्रभु के ध्यान में लीन हो गए।
तब उन सैनिकों ने निराश होकर और वापस अकबर के दरबार में जाकर सारा हाल अकबर को कह सुनाया। उसे सुनकर अकबर को बहुत क्रोध आया। और क्रोध में उन्होंने सैनिकों को आदेश दिया कि, “तुलसीदास जी को ज़बरदस्ती उठाकर दरबार में हाज़िर किया जाए।” अब राज आज्ञावश वो सैनिक तुलसीदास जी को पकड़कर अकबर के सामने ले आए। अकबर ने तुलसीदास जी से कहा कि, “हमने सुना है कि आपके पास चमत्कारिक शक्ती है, आप तो मुर्दे में भी जान फूंक सकते हो, इसीलिए कृपया हमें भी इस तरीके का कुछ नमूना दिखाईये।”

तब तुलसीदास जी ने कहा, “मेरे अंदर कोई चमत्कारिक शक्ती नही है, इसलिए मैं कोई चमत्कारिक शक्ती का नमूना आपको नहीं दिखा सकता। जो कुछ भी होता है वो मेरे प्रभु श्रीराम जी की कृपा से ही होता है। जो कुछ करते हैं, वो मेरे प्रभु श्रीराम जी ही करते हैं, मैं नहीं।” तब अकबर ने व्यंग्य से कहा कि, “तो ठीक है, आप अपने प्रभु से कहिए… वो हमें कुछ चमत्कार दिखाऐं।” तब तुलसीदास जी ने कहा कि, “मेरे प्रभु अपनी मर्जी के मालिक हैं, वो किसी के कहने से या मेरे कहने से कुछ नहीं करेंगे।” तब अकबर को बहुत गुस्सा आया और उसने कहा, “अरे! ना तो आप मेरी बात मान रहे हैं और ना ही अपने प्रभु से कुछ कह रहे हैं। ये तो हमारा अपमान है। आप हमारे आदेश की अवहेलना कर रहे हैं। आपको इसका कठोर दंड मिलेगा और आपको काल कोठरी में डाल दिया जाएगा।” ऐसा कहकर उसने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि, “जब तक तुलसीदास जी या उनके प्रभु कोई चमत्कार ना दिखाऐं तब तक उन्हें हवालात में डाल दिया जाए।” और हमारे अगले आदेश का इन्तज़ार किया जाए। अब तो तुलसीदास जी पर भारी विपदा आन पड़ी थी।
तो भक्तों ये था तुलसीदास जी का अपराध… जिसकी वजह से उनको कारावास की सजा मिली। अब आगे देखीए कि क्या होता है। इस कथा के बाद श्री हनुमान जी की लीला का दर्शन कीजिए।


कुछ दिनों तक इस घटना से तुलसीदास जी का मन बड़ा विचलित रहने लगा। वे सोचते रहते थे कि ना जाने कौन से जनम के किस अपराध के कारण उन्हें ये दिन देखना पड़ रहा है। वे बड़े ही आर्त भाव से हनुमान जी को पुकारते और कहने लगते कि, “हे प्रभु! हे बजरंग बली ! आप कहाँ हो? मुझ पर बड़ी विपदा आन पड़ी है। अब मैं कैसे प्रभु श्री सीताराम जी की पूजा, भक्ती और भजन कर पाऊँगा। इस काल कोठरी से मुक्त होने का आप ही कुछ उपाय करें।” फिर इसी आर्त क्रम में उन्होंने श्रीहनुमानचालीसा की रचना चालीस दोहों में कर डाली।

जो अपने आप में एक ऐसी अद्भुत कृती बन गई है, जिसके पठन अथवा श्रवण मात्र से ही प्रभु भक्तों के अपार कष्टों का निवारण श्री हनुमान जी स्वयं कर देते हैं। जिससे प्रभु के भक्तों को अत्यंत सुख और शांती मिलती है।
श्रीहनुमानचालीसा में श्री तुलसीदास जी ने स्वयं लिखा है –
“जो सत बार पाठ कर कोई, छूटहि बन्दि महा सुख होई।”

अर्थात इस श्रीहनुमानचालीसा का पाठ जो कोई भी सौ बार करता है, वो बंधन से मुक्त होकर, महा सुख पाता है।
अब यहाँ पर श्री हनुमान जी की लीला का दर्शन कीजिए। चालीसवें दिन जैसे ही ये आर्त पुकार हनुमान जी के कानों में पड़ती है, वैसे ही उसी रात को अकबर के महल में कई हजारों बंदर आ जाते हैं और अकबर के बाग-बगीचे को तहस-नहस करने लगते हैं और उसके महल में तोड़-फोड़ शुरु कर देते हैं। सब सैनिकों को लात-घूसे मारने लगते हैं। कई बंदर अकबर के पलंग को जोर-जोर से हिलाने लगते हैं। तब अकबर घबराकर नींद से उठ जाता है और आश्चर्य से यहाँ-वहाँ देखने लगता है। बंदरों को अपने महल में देखकर आश्चर्यचकित हो जाता है और सैनिकों को पुकारने लगता है। मगर दुर्दैव से उसकी पुकार कोई नहीं सुनता है। अंत में अकबर उन बंदरों से विनती करने लगता है और कहता है, “कृपया मुझे छोड़ दिजीए, मैंने आपका क्या बिगाड़ा है… और अगर मैंने कोई अपराध किया है या कोई गलती की है तो मेरी गलतीयों को कृपया क्षमा कीजिए।”
तब वे वानर कहते हैं कि, “आप हम से क्षमा क्यूँ माँग रहे हैं। आप ने हमारा कोई अपराध नहीं किया है। इसलिए हम आपको क्षमा नहीं कर सकते। आपको अगर क्षमा माँगनी है तो तुलसीदास जी से माँगीये। आपने उनका अपराध किया है…आपने उनको बिना वजह कारागार में डाल दिया है। जब तक उनको

आदरसहित नहीं छोड़ेंगे, तब तक हम आपको छोड़ नहीं सकते। आपने तुलसीदास जी का अपमान किया है, अब वही आपको क्षमा कर सकते हैं, हम नहीं।”
इतना सुनते ही अकबर अपने सैनिकों को आदेश देता है कि, “तुलसीदास जी को तुरन्त छोड़ दिया जाए और उन्हें आदर सहित मेरे पास लाया जाए।” इतना सुनते ही सारे सैनिक तुलसीदास जी को कारावास से मुक्त करा कर और आदर सहित अकबर के सन्मुख उपस्थित करते हैं। और तब अकबर तुलसीदास जी को देखकर उनके पैर पकड़ता है और कहता है कि, “मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई, जो मैंने आपको और आपके प्रभु को पहचाना नहीं। आप लोगों की परीक्षा करना चाहा। मुझे नहीं पता था कि आप इतने महान संत हो सकते हैं। जिसके लिए प्रभु को भक्त की मुसीबत में स्वयं आना पड़ता है। इसके लिए मैंने आपके प्रति या आपके प्रभु के प्रति जो भी दुर्वचन कहे हैं या जो भी अपराध किया है, उसके लिए मैं आप से तहेदिल से माँफी माँगता हूँ। कृपया हमें इस गुस्ताखी के लिए माँफ करें। आगे से ऐसी कोई गुस्ताखी हम से नहीं होगी, इसका हम वचन देते हैं।” इस प्रकार अकबर जब उन से बार-बार माँफी माँगता है, तब फिर तुलसीदास जी विनम्र होकर अकबर को क्षमा कर देते हैं और श्रीराम जी और श्री हनुमान जी का गुणगान करते हुए वापस अपने घर आ जाते हैं।

।। इति शुभम् ।।

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लेखक: Sushil C. Agrawal

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