Wednesday, June 25, 2025
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श्री कृष्णा जन्मकथा – श्री कृष्ण के बारे में सब कुछ जानें

भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को भगवान् श्री कृष्ण का जन्म हुआ था। श्री कृष्ण का जन्म माता देवकी के गर्भ से हुआ था, लेकिन उनका पालन-पोषण वृंदावन में यशोदा और नंद ने किया था।

श्री कृष्णा जन्मकथा को थोड़ा विस्तार से समझा जाए।

द्वापर युग के समय मथुरा राज्य में भोजवंशी राजा उग्रसेन राज्य करते थे। उसका बेटा कंस आतातायी था। कंस की एक बहन देवकी थी, कंस अपनी बहन से बहुत स्नेह करता था।कंस अपने पिछले जन्म में कालनेमि नामक एक राक्षस था , जिसका वध भगवान विष्णु ने किया था।कंस का जन्म राजा उग्रसेन और रानी पद्मावती से हुआ था। हालाँकि, महत्वाकांक्षा के कारण, और अपने निजी विश्वासपात्रों, बाणासुर और नरकासुर की सलाह पर , कंस ने अपने पिता को उखाड़ फेंकने और खुद को मथुरा का राजा बनाने का निश्चय किया। इसलिए, वो एक अन्य सलाहकार चाणूर के मार्गदर्शन पर, कंस ने मगध के राजा जरासंध की बेटियों अस्ति और प्राप्ति से विवाह करने का फैसला किया ।कुछ समय बाद उग्रसेन के बेटे कंस ने उन्हें गद्दी से उतार दिया और कैद कर लिया। इसके बाद कंस स्वयं मथुरा का राजा बन बैठा।

जब देवकी का विवाह हुआ , तो कंस अपनी बहन देवकी को बहनोई वासुदेव के साथ ससुराल पहुंचाने जा रहा था। तभी आकाशवाणी हुई- ‘हे मुर्ख कंस, अपनी जिस बहन देवकी को तू बड़े प्रेम से ले जा रहा है, उसी की आठवीं संतान तेरा वध करेगा।’ यह सुनकर कंस का सारा प्रेम जाता रहा। उसने देवकी को मारने के लिए तलवार उठा ली और आगे बढ़ा, तभी वसुदेव ने उससे विनयपूर्वक कहा- हे कंस ‘देवकी की गर्भ से जो संतान होगी, उसे मैं तुम्हे दे दूंगा। अपनी बहन की हत्या का क्या लाभ ?वसुदेव के अनुनय विनय करने पर कंस ने उनकी बात मान ली और मथुरा वापस चला आया। उसने वसुदेव और देवकी को कारागार में डाल दिया।जेल की चारदीवारी में देवकी ने बार-बार गर्भधारण किया और कंस ने पहले छह बच्चों की क्रूरतापूर्वक हत्या कर दी।सातवें बच्चे के जन्म से पहले, विष्णु ने देवी योगमाया को देवकी के सातवें बच्चे को रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित करने का आदेश दिया । इस बच्चे का पालन-पोषण रोहिणी के द्वारा किया जाएगा, और उसका नाम बलराम रखा जाएगा । योगमाया को यशोदा की पुत्री के रूप में जन्म लेने का कार्य सौंपा गया था। अब आठवां बच्चा होने वाला था। कारागार में उन पर कड़े पहरे बैठा दिए गए।ठीक उसी समय नंद की पत्नी यशोदा को भी बच्चा होने वाला था। उन्होंने वसुदेव-देवकी के दुखी जीवन को देख आठवें बच्चे की रक्षा का उपाय रचा। जिस समय वसुदेव-देवकी को पुत्र पैदा हुआ, उसी समय यशोदा के गर्भ से एक कन्या का जन्म हुआ, जो और कुछ नहीं सिर्फ ‘माया’ थी।

भाद्रपद कृष्णपक्ष अष्टमी को मध्य रात्रि रोहिणी नक्षत्र में जिस कोठरी में देवकी-वसुदेव कैद थे, उसमें अचानक प्रकाश हुआ और उनके सामने शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए चतुर्भुज भगवान प्रकट हुए। दोनों भगवान के चरणों में गिर पड़े। तब भगवान ने उनसे कहा- ‘अब मैं पुनः नवजात शिशु का रूप धारण कर लेता हूं।

तुम मुझे इसी समय अपने मित्र नंदजी के घर वृंदावन में पहुंचा देना और उनके यहां जिस  कन्या का जन्म हुआ  है, उसे लाकर कंस के हवाले कर देना। इस समय वातावरण अनुकूल नहीं है। फिर भी तुम चिंता न करो। जागते हुए पहरेदार सो जाएंगे, कारागार के फाटक अपने आप खुल जाएंगे और उफनती अथाह यमुना तुमको पार जाने का मार्ग दे देगी। भगवान के अंतर्ध्यान होने के बाद वसुदेव जी की बेड़ियाँ स्वतः खुल गयीं। सरे प्रहरी गहरी निद्रा में चले गए।

उसी समय वसुदेव  जी नवजात शिशु-रूप  श्रीकृष्ण को सूप में रखकर कारागार  से निकल पड़े, और अथाह यमुना को पार करने लगे। यमुना जी अपने प्रभु के दर्शनों का लोभ संभाल न सकीं और अपने ऊँचे लहरों से प्रभु के चरण छूने के लिए मचल उठीं। प्रभु के चरण छूने के बाद यमुना जी का लहार नीचे उतर गया । वसुदेव जी किसी तरह नन्द राय जी   के घर पहुंचे। वहां उन्होंने नवजात शिशु को यशोदा के साथ सुला दिया और कन्या को लेकर मथुरा आ गए। कारागार के फाटक पूर्ववत बंद हो गए।

अब कंस को सूचना मिली कि वसुदेव-देवकी को संतान प्राप्त हुआ है। उसने बंदीगृह में जाकर देवकी के हाथ से नवजात कन्या को छीनकर पृथ्वी पर पटक कर मारना चाहा, लेकिन वह कन्या आकाश में उड़ गई, और कहा- ‘अरे मूर्ख, मुझे मारने से क्या होगा? तुझे मारनेवाला तो जन्म ले चूका है। वह जल्द ही तुझे तेरे पापों का दंड देगा।’ यह है कृष्ण जन्म की कथा।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌

भावार्थ:

हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हू। इसलिए भगवद्गीता को अपने जीवन का सबसे अनिवार्य अंग बनाके अपनी सांसो को सफल बनाइये।

कृष्णा ने तो पूरी महाभारत के दौरान अर्जुन को यही शिक्षा दी थी

“कि धर्म का साथ दो, निष्काम होकर कर्म करो, मायाजाल के बंधन से निकलो।”

कहने का तात्पर्य है कि यदि कोई किसी के साथ अन्याय करता है, तो आपका ये कर्तव्य बनता है कि आप उसे रोकने की पूरी कोशिश करें, भले ही वह आपका सगा/संबंधी क्यों न हो, लेकिन आपको सिर्फ अपने धर्म का पालन करना है, न कि अपने रिश्तेदारों के साथ मिलकर अधर्म का साथ देना है।

कंस का वध करना कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी ये कार्य तो भगवान श्री कृष्ण जी के एक इशारे मात्र पर हो सकता था। भगवान जी का प्रयोजन मात्र कंस का वध करना नहीं था बल्कि अपने ईश्वरीय धर्म की स्थापना करना था, जो कि भगवान श्री कृष्ण जी के अतिरिक्त कोई अन्य देवता नहीं कर सकते थे। क्योंकि भगवान जी के ज्ञान को भगवान के अतिरिक्त कोई स्थापित नही कर सकता।

अर्थात भगवान जी का कार्य दुष्टों को सजा देना नहीं बल्कि उनके दुष्ट कर्मों का नाश करके धर्म की स्थापना है, और भगवान जी ने गीता में कहा है कि अर्जुन ये ज्ञान मैंने सृष्टि की शुरुआत में दिया था किन्तु धीरे धीरे ये लोप हो गया और लोग बाहरी कर्मकांडो में उलझ गए ओर मुझे यानि परमेश्वर को भूल अन्य साधनों में उलझ गए ,तो कंस वध महत्वपूर्ण नहीं था ,बल्कि भगवान ने जो गीता ज्ञान के द्वारा अपना अनमोल ईश्वरीय ज्ञान और धर्म स्थापित किया जिसको श्रवण मनन कर हम उनके परमधाम को प्राप कर सकते हैं, ये जरूरी था। ताकि हम बार बार के जन्म मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो सकें।

धर्म की जय हो।
अधर्म का नाश हो।
प्राणियों में सद्धभावना हो।
समस्त विश्व का कल्याण हो।

यही कामना के साथ

Credit:

लेखिका: बिट्टू मिश्रा Bittu Mishra

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